संत कबीर के प्रसिद्ध 100+ दोहे | Kabir ke Dohe अर्थ सहित

संत कबीर के प्रसिद्ध 100+ दोहे | Kabir ke Dohe अर्थ सहित

Top Famous 100 Kabir ke Dohe – संत कबीर दास के प्रसिद्ध दोहे (गुरु के दोहे अर्थ सहित)

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय,

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय |1|

अर्थ गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,

शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान |2|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष (जहर) से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश(सर) देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है |

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज,

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा जाए |3|

अर्थयदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल – वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है ।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये,

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए |4|

अर्थहमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों को शीतलता का अनुभव हो और साथ ही हमारा मन भी प्रसन्न हो उठे।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर,

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर |5|

अर्थखजूर के पेड़ के भाँति बड़े होने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इससे न तो यात्रियों को छाया मिलती है, न इसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं | आर्थात बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का लाभ नहीं होता |

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें,

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए |6|

अर्थजो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है |

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा मिलिया कोय,

जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा कोय |7|

अर्थजब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है |

Kabir ke dohe - bura jo dekhan main chla

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे कोय,

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय |8|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों |

कबीर के दोहे

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रोंदे मोहे,

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे |9|

अर्थमिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रोंद दूँगी।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात,

देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात |10|

अर्थकबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी |

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये,

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा कोए |11|

अर्थचलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।

मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार,

फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार |12|

अर्थमालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। भावार्थात आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,

पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब |13|

अर्थकबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे |

Kabir ke dohe - kaal kare so aaj kar

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग,

तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग |14|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप,

जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप |15|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।

जो घट प्रेम न संचरे, जो घट जान सामान,

जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण |16|

अर्थजिस इंसान के अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है।

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश,

जो है जा को भावना सो ताहि के पास |17|

अर्थकमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।

                    जाती पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान |18|

अर्थसज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का |

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए,

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए |19|

अर्थकबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई संग,

प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत |20|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है।

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार,

सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार |21|

अर्थतीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से  पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं |

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय,

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए |22|

अर्थशरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं |

प्रेम बारी उपजे, प्रेम हाट बिकाए,

राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए |23|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीशक्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।

जिन घर साधू पुजिये, घर की सेवा नाही,

ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही |24|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय,

सारसार को गहि रहै थोथा देई उडाय |25|

अर्थइस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे |

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया हेत,

अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत |26|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही,

सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही |27|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकारमैं था, तब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास है तो मैंअहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है।

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल जाए,

मीन सदा जल में रहे, धोये बास जाए |28|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय,

लोभी शीश दे सके, नाम प्रेम का लेय |29|

अर्थजिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।

कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर,

जो पर पीर जानही, सो का पीर में पीर |30|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और,

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर |31|

अर्थजो लोग गुरु और भगवान् को अलग समझते हैं, वे सच नहीं पहचानते। अगर भगवान् अप्रसन्न हो जाएँ, तो आप गुरु की शरण में जा सकते हैं। लेकिन अगर गुरु क्रोधित हो जाएँ, तो भगवान् भी आपको नहीं बचा सकते।

कबीर सुता क्या करे, जागी जपे मुरारी,

एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी |32|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा।

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय,

कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय |33|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिमबर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय |34|

अर्थबड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके | कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा |

Kabir ke dohe - pothi padh padh jag

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय,

जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ होय |35|

अर्थजीवन के अंत समय आने पर जब परमात्मा ने बुलावा भेजा तो कबीर रो पड़े और सोचने लगे की जो सुख साधु संतों के सत्संग में है वह बैकुंठ में नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जनों के सत्संग के सम्मुख वैकुण्ठ का सुख भी फीका है।

शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान,

तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन |36|

अर्थशांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये,

मैं भी भूखा रहूँ, साधू भूखा जाए |37|

अर्थकबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।

माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए,

हाथ मले और सर ढूंढे, लालच बुरी बलाय |38|

अर्थजिस तरह मक्खी को गुड़ को देख यह लालच आता है। की मैं उस गुड़ को जाकर खाऊ मगर वह जैसे ही उस गुड़ पर बैठती है और उसी में चिपक जाती है ठीक उसी तरह मनुष्य को किसी भी चीज का लालच नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका परिणाम हमेशा बुरा होता है।

ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार,

हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार |39|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।

कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत चार,

साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार |40|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि कड़वे बोल बोलना सबसे बुरा काम है, कड़वे बोल से किसी बात का समाधान नहीं होता। वहीँ सज्जन विचार और बोल अमृत के समान हैं।

आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर,

इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर |41|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जो इस दुनियां में आया है उसे एक दिन जरूर जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।

ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची होय,

सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय |42|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय,

हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय |43|

अर्थरात नींद में नष्ट कर दी, सोते रहे, दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया! कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी |

Raat gvaai so ke - Kabir ke dohe

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति होय,

भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए |44|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।

कागा का को धन हरे, कोयल का को देय,

मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय |45|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।

लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट,

अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट |46|

अर्थकबीर दस जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की ।

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय,

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय |47|

अर्थकबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो, जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है | यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है |

धीरेधीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय |48|

अर्थमन में धीरज रखने से सब कुछ होता है, अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा |

माया मरी मन मरा, मरमर गए शरीर,

आशा तृष्णा मरी, कह गए दास कबीर |49|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली आषा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती। इसलिए संसार की मोह तृष्णा आदि में नहीं फंसना चाहिए।

मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख,

मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख |50|

अर्थमाँगना मरने के बराबर है, इसलिए किसी से भीख मत मांगो | सतगुरु कहते हैं कि मांगने से मर जाना बेहतर है, अर्थात पुरुषार्थ से स्वयं चीजों को प्राप्त करो, उसे किसी से मांगो मत।

ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।

मूर्ख लोग जानिए, बाहर ढूँढत जाहिं |51|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये |52|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय |53|

अर्थबड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके | कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा |

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ |54|

अर्थजो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है | लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते |

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,

चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता तजंत |55|

अर्थसज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें, फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता | चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता |

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस,

भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस |56|

अर्थकबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता |

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद,

खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद |57|

अर्थकबीर कहते हैं कि अरे जीव! तू झूठे सुख को सुख कहता है, और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है |

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास,

सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास |58|

अर्थयह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं | सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है |

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस,

ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस |59|

अर्थकबीर कहते हैं कि हे मानव! तू क्या गर्व करता है ? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है | मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले |

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई,

जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई |60|

अर्थकबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है | पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है |

kabir ke dohe - jab gun ko gaahak mile

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि सुरझ्या मन,

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन |61|

अर्थकहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया | कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता | आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है |

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ीलड़ी मुए, मरम कोउ जाना |62|

अर्थकबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती, काहू से बैर |63|

अर्थइस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं, कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्‍ती नहीं तो दुश्‍मनी भी न हो |

अति का भला बोलना, अति की भली चूप,

अति का भला बरसना, अति की भली धूप |64|

अर्थन तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,

हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि |65|

अर्थयदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है |

boli ek anmol hai - kabir ke dohe

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद आवई, जिनका आदि अंत |66|

अर्थयह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत |

धीरेधीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय |67|

अर्थमन में धीरज रखने से सब कुछ होता है | अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा |

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय,

जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय |68|

अर्थकबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

Jaisa bhojan khaiye - Kabir ke dohe

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं,

धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं |69|

अर्थसाधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता |

माया मुई मन मुआ, मरी मरी गया सरीर,

आसा त्रिसना मुई, यों कही गए कबीर |70|

अर्थकबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन | शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं |

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय,

मैं भी भूखा रहूँ, साधु ना भूखा जाय |71|

अर्थकबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये, मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय,

हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय |72|

अर्थरात नींद में नष्ट कर दी, सोते रहे, दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया| कुछ सार्थक नहीं किया तो जीवन का क्या मूल्य बचा? एक कौड़ी |

इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति,

कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति |73|

अर्थउपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए।

धर्म किये धन ना घटे, नदी घट्ट नीर,

अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर |74|

अर्थधर्म परोपकार, दान सेवा करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।

गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह,

आगे हाट बानिया, लेना होय सो लेह |75|

अर्थकबीर दास जी कहना चाहते है, की जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे आप परोपकार में लगाईए | और नर-शरीर के पश्चात् इतने बड़े बाजार में-कोई व्यापारी नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो।

या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत,

गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत |76|

अर्थइस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।

एकही बार परखिये ना वा बारम्बार,

बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार |77|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि किसी व्यक्ति को परखना है तो बस केवल एक बार में ही परख लेना चाहिए, इससे उसे बार बार परखने की आवश्यकता नहीं होगी।

गुरु के दोहे अर्थ सहित

देह धरे का दंड है सब काहू को होय,

ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय |78|

अर्थदेह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है, जो सबको भुगतना होता है | अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है |

पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी संसै सूल,

कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल |79|

अर्थबहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?

पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट,

कहें कबीरा प्रेम की लगी एको छींट |80|

अर्थज्ञान से बड़ा प्रेम है – बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं। जिस मानव मन को प्रेम  ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा। प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी,

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी |81|

अर्थजब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं!  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है। अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है। एकाकार हो जाती है।

काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत,

ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त |82|

अर्थशरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल (अर्थात मृत्यु) उस पर हँसता है! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है! कितनी दुखभरी बात है |

ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच होय,

सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय |83|

अर्थयदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं, तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे |

unche kul kya janmiya - kabir ke dohe

मूरख संग कीजिए,लोहा जल तिराई,

कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई |84|

अर्थमूर्ख का साथ मत करो। मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है । संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।

कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ,

बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ |85|

अर्थकबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है | लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है. इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना चाहिए |

झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह,

झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह |86|

अर्थजब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है। पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।

करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय,

बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय |87|

अर्थयदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें?

कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार,

हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार |88|

अर्थकबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं, जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं |

मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास,

मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास |89|

अर्थममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।

तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ,

मन परतीति उपजै, जीव बेसास होइ |90|

अर्थतेरा साथी कोई भी नहीं है, सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति, भरोसा, मन में उत्पन्न नहीं होता, तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता | अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है |

कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया जाई,

नैनूं रमैया रमि रहा, दूजा कहाँ समाई |91|

अर्थकबीर कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है, वहां काजल नहीं दिया जा सकता | जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं, तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है?

लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार,

कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार |92|

अर्थघर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं |

जिहि घट प्रेम प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम,

ते नर या संसार में, उपजी भए बेकाम |93|

अर्थजिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं। प्रेम जीवन की सार्थकता है। प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।

इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव,

लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव |94|

अर्थकबीर दास जी कहते हैं, इस तन को मैंने दीपक बना लिया है और अपने प्राणों की बत्ती बना कर इसे रक्त के तेल से जला लिया है, हे प्रभु इस तरह आपकी भक्ति में अपने आपको आपको समर्पित कर दिया है, प्रभु आपके दर्शन कब होंगे|

is tan ka diwa karo - kabir ke dohe

कबीर प्रेम चक्खिया, चक्खि लिया साव,

सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव |95|

अर्थकबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता |

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह,

राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय |96|

अर्थएक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं! हे छत्रपतियों! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते |

झिरमिरझिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह,

माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह |97|

अर्थबादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे। इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।

हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि,

आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि |98|

अर्थयह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं।

हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध,

कबीर परखै साध को ताका मता अगाध |99|

अर्थहीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है । कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है |

Heera parkhe johri - kabir ke dohe

कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय,

साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब देय |100|

अर्थउल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट दुष्टोंतथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।

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Hitesh Kumar

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मैं Hitesh Kumar, डिजिटल मार्केटिंग क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों से कार्यरत एक अनुभवी पेशेवर हूँ। डिजिटल दुनिया में रचा-बसाव के साथ-साथ मुझे लिखने का भी गहरा शौक है, यही वजह है कि मैं “Gossip Junction” का Founder और writer हूँ। गॉसिप जंक्शन पर मैं सिर्फ मनोरंजन की खबरें ही नहीं परोसता, बल्कि प्रेरणादायक कहानियां, सार्थक उद्धरण, दिलचस्प जीवनी, आधुनिक तकनीक और बहुत कुछ लिखकर पाठकों को जीवन के विभिन्न पहलुओं से रूबरू कराता हूँ।