क्षितिज के पार से By Pragya Shukla

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क्षितिज के पार से By Pragya Shukla

चाहती हूँ लौट आओ तुम क्षितिज के पार से,

अब तिमिर घनघोर छाया,

कुछ नजर आता नहीं,

राह अब मुझको दिखाओ,

तुम क्षितिज के पार से ||1||

पास तुम थे तो निराली थी महक इस बाग़ की,

तुमको खोकर हो गया वीरान ये,

गुलशन मेरा,

चाहती हूँ बाग़ का हर गुल खिला दो,

तुम क्षितिज के पार से ||2||

मेरा हर आंसू पुकारे,

लम्हा-लम्हा कह रहा,

उर से फिर मुझको लगा लो,

तुम क्षितिज के पार से ||3||

वेदनाओं को बहुत मैं सह चुकी,

सवेंदना पाकर बहुत मैं रो चुकी,

चाहती हूँ वेदना का ये गरल,

पीना सीखा दो, तुम क्षितिज के पार से ||4||

राह में अब तक पड़ी हूँ,

रास्ते की धुल सी,

यूं हवा बन के उड़ा लो,

तुम क्षितिज के पार से ||5||

लेखक – Pragya Shukla